बदन की क़ब्र में ख़्वाबों की लाश है मैं हूँ
क़दम क़दम पे ही फ़िक्र-ए-म'आश है मैं हूँ
ज़माने भर में तो ये राज़ फ़ाश है मैं हूँ
मगर मुझे तो मिरी ही तलाश है मैं हूँ
हर एक ज़र्ब नए तज्रबे उकेरे है
हयात है कि कोई संग-तराश है मैं हूँ
लगेंगी बोलियाँ जन्नत की अब सर-ए-बाज़ार
बिकेगी ख़ुल्द-ए-बरीं उफ़ विनाश है मैं हूँ
जो वक़्त माज़ी में गुज़रा है काश रुक जाता
लबों पे आज फ़क़त लफ़्ज़-ए-काश है मैं हूँ
हर इक क़दम पे नई हसरतें पनपती हैं
न जाने कैसा ये इक मोह-पाश है मैं हूँ
क्यूँ लम्हा लम्हा ये बढ़ती ही जा रही है 'शिहाब'
ये गुज़रे वक़्त की कैसी ख़राश है मैं हूँ
आज सुन ली है मिरे अहबाब ने मेरी ग़ज़ल
आज अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुँची ग़ज़ल
जब सुनाई आप ने तो बा-अदब सुन ली ग़ज़ल
और जब कोशाँ हुआ तो बे-धड़क कह दी ग़ज़ल
ये लब-ओ-रुख़्सार ये चेहरा तेरा पुर-नूर सा
तुझ को क्या देखा लगा जैसे कोई देखी ग़ज़ल
कल जो देखी थी ग़ज़ल तो दिल की धड़कन रुक गई
आज जो देखी ग़ज़ल तो बन के दिल धड़की ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ ऊला चश्म सानी क़ाफ़िया रुख़ लब रदीफ़
रब ने तुम को है तराशा या कोई लिक्खी ग़ज़ल
क़ाफ़िया रूठा हुआ था मुँह चिढ़ाती थी रदीफ़
तुम क्या रूठे रात भर थी रात भर रूठी ग़ज़ल
तहत में जब भी पढ़ी तो बन के निकली इंक़लाब
जब तरन्नुम में पढ़ी तो झूम उठी मेरी ग़ज़ल
हैं ये अस्नाफ़-ए-अदब जान-ए-सुख़न-दाँ शा'इरी
नज़्म मेरी साँस है और ज़िंदगी मेरी ग़ज़ल
कह उठे हैं सब सुख़नवर अहल-ए-महफ़िल ये 'शिहाब'
जो तेरे लब से हुई आख़िर वही ठहरी ग़ज़ल
एक इक पल में सुनो सैंकड़ों ग़म काटते हैं
ज़िंदगी कटती कहाँ है उसे हम काटते हैं
मिल के रहते हैं वतन में सभी हम-साए मगर
इस मोहब्बत को सियासत के उधम काटते हैं
गुलशन-ए-दहर के हर गुल से महकता गुलशन
मिल के हम आइए नफ़रत के अलम काटते हैं
आलम-ए-हिज्र में हैं वस्ल की यादों के चराग़
इन्हीं यादों से तिरे हिज्र का ग़म काटते हैं
हम ने जो की थी वफ़ा वो ही वफ़ा जुर्म हुई
देखिए इस की सज़ा कितने जनम काटते हैं
पाक रक्खा है तख़य्युल को इबादत की तरह
इतनी जिद्दत से तभी शे'र का ज़म काटते हैं
उम्र गुज़री है 'शिहाब' अपनी जफ़ाओं के तईं
दिल को रह रह के जफ़ाओं के सितम काटते हैं
इक आफ़्ताब का रंग एक माहताब का रंग
मिला के ढाला गया है तिरे शबाब का रंग
नुमायाँ जिस्म है और शोख़ है नक़ाब का रंग
बदल रहा है ज़माने में अब हिजाब का रंग
मिली नज़र जो मिरी दफ़अ'तन सर-ए-महफ़िल
हया से रुख़ पे तेरे आ गया गुलाब का रंग
निकल पड़े हैं जो जुगनू लिए हुए क़िंदील
उतर गया है तभी से इस आफ़्ताब का रंग
सुना है तख़्त लरज़ते हैं ताज हिलते हैं
जो हम ग़ज़ल में मिलाते हैं इंक़लाब का रंग
सलीक़ा ज़ीस्त को जीने का हम ने सीखा है
सरों पे जब से चढ़ा है तेरी किताब का रंग
वो पहले पहले से तेवर हवा हुए देखो
उड़ा उड़ा सा है कुछ दिन से अब जनाब का रंग
किसी के सर पे चढ़ा रंग 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का
किसी के सर पे चढ़ेगा कभी 'शिहाब' का रंग
ख़ौफ़ सा फिर लबों पे तारी है
इक अजब कैफ़ियत हमारी है
आओ बदलें निज़ाम-ए-गुलशन हम
कुछ हमारी भी ज़िम्मेदारी है
रौशनी हक़ के एक जुगनू की
सैंकड़ों ज़ुल्मतों पे भारी है
आप का तो कोई जवाब नहीं
आइए अब हमारी बारी है
जश्न-ए-तदफ़ीन-ए-आरज़ू-ए-विसाल
और साँसों का रक़्स जारी है
वस्ल का एक क़ीमती लम्हा
हिज्र की मुद्दतों पे भारी है
वहशत-ए-इश्क़ में सुनो हम ने
दिन समेटा है शब उतारी है
क़हक़हों का नगर तुम्हें सौंपा
दर्द पर सल्तनत हमारी है
ग़लतियाँ आप से नहीं होतीं
क्या फ़रिश्तों से रिश्ता-दारी है
आप सुनिए 'शहाब' को भी कभी
गोया इल्हाम-ए-रब्त जारी है
जिस्म ख़ामोश सी तस्वीर हुआ जाता है
अब तिरा हिज्र ले ता'मीर हुआ जाता है
रब्त जब एक की तक़दीर से हो जाए तो फिर
क्या किसी और की तक़दीर हुआ जाता है
रुख़ उकेरे हुए माज़ी की कहानी के नुक़ूश
अब ग़म-ए-हिज्र की तश्हीर हुआ जाता है
अक्स उभरे शब-ए-फ़ुर्क़त में जो दीवारों पर
वक़्त मेरे लिए शमशीर हुआ जाता है
तू भी अब देख ले इस सब्र के दामन को समेट
ज़ब्त मेरा भी अब आख़ीर हुआ जाता है
उस ने जाने का कहा मैं ने भी रोका ही नहीं
क्या कभी पाँव की ज़ंजीर हुआ जाता है
हाए ग़ज़लें तिरी दिल चीर के रख देंगी 'शिहाब'
चंद अर्से में कहाँ 'मीर' हुआ जाता है
पहले बनती ही न थी बात सो अब बनती है
आज-कल उन के तसव्वुर से ग़ज़ब बनती है
चलिए चल कर कहीं ढूँडे कोई उजड़ी हुई रात
अपनी इन चाँद सितारों से तो कब बनती है
नफ़्स जब रूह पे हावी हो तो फिर वहशत में
तिश्नगी देखिए क़ुर्बत का सबब बनती है
सुरमई शाम में सूरज का लहू मिल जाए
तब कहीं जा के मिरी जान ये शब बनती है
फिर सँभाले न सँभलती है अगर बिगड़े तो
और बिगाड़े न बिगड़ती है कि जब बनती है
पहले पहले तो किसी खेल सी लगती है मगर
सर पे चढ़ जाए मोहब्बत तो तलब बनती है
'आशिक़ी हद से गुज़रती है तभी जा के 'शिहाब'
क़ैस-ओ-फ़रहाद का राँझे का लक़ब बनती है
दिल में पैग़ाम-ए-मोहब्बत सा उतारा जाऊँ
इस से पहले कि किसी भीड़ में मारा जाऊँ
वस्ल की चाह में ये हिज्र कमाया मैं ने
हिज्र को ख़र्च करूँ ज़ीस्त से हारा जाऊँ
रूठी तक़दीर हूँ तो मुझ को मनाया जाए
और गर बिगड़ा मुक़द्दर हूँ सँवारा जाऊँ
एक अर्से से ख़लाओं से सदा आती है
ऐसा लगता है मुझे उस ने पुकारा जाऊँ
मैं नहीं उन में कि जो ख़ुद को किसी पर थोपें
भर गया मुझ से अगर दिल ये तुम्हारा जाऊँ
अब यहाँ पहले सी जज़्बात में शिद्दत न रही
अब यहाँ होगा नहीं अपना गुज़ारा जाऊँ
दे ख़ुदा काश उसे दिल की मसीहाई 'शिहाब'
और सहीफ़ों सा मैं फिर उस पे उतारा जाऊँ
नए मसीहा बनेंगे नए लक़ब होंगे
हमारे मुल्क में फिर इंतिख़ाब अब होंगे
सुना है फिर से नए ख़्वाब बेचे जाएँगे
सुना है फिर से नए जुमले ज़ेर-ए-लब होंगे
जो पाँच साल कभी याद तक नहीं आए
वही ग़रीब वो लाचार फिर तलब होंगे
लो फिर से मंदिर-ओ-मस्जिद का जिन निकल आया
लो फिर से रहनुमा अब ख़ूँ के तिश्ना-लब होंगे
चमन में बो तो रहे हो तुम इंतिशार के बीज
इस इंतिशार का लेकिन शिकार सब होंगे
हमारे मुल्क का आईन हम से कहता है
अब इंक़िलाब फ़क़त वोट के सबब होंगे
'शिहाब' अपने ही जिन से न फ़ैज़याब हुए
तुम्हारे और मिरे ग़म-गुसार कब होंगे
आगे जो होगा वो होगा ख़ैर कर आया हूँ मैं
जो ज़बर बनते थे उन को ज़ेर कर आया हूँ मैं
हाँ बहुत मुश्किल तो है लेकिन ये ना-मुम्किन नहीं
दर्द की तुग़्यानियों में तैर कर आया हूँ मैं
मर गया है कोई मुझ में उस पे मिट्टी डालिए
अपनी सारी ख़्वाहिशों को ढेर कर आया हूँ मैं
दर्द वहशत रंज-ओ-ग़म तन्हाइयाँ शाम-ए-अलम
जो मुझे घेरे थीं उन को घेर कर आया हूँ मैं
वो जिसे पाने की हसरत दिल में मुद्दत से रही
उस के ही ख़ातिर उसे अब ग़ैर कर आया हूँ मैं
काम ये आसाँ नहीं इस में कलेजा चाहिए
इश्क़ की वादी से हाँ रुख़ फेर कर आया हूँ मैं
जाने किस की दीद की हसरत लिए दिल में 'शिहाब'
दश्त-ओ-सहरा से भी आगे सैर कर आया हूँ मैं